बदलते मौसम के
मिजाज को देख सन्नाटा आ पसरा है बाजार में
रोनक ख़ामोशी से
सिमट कर जा बैठी है
बंद दीवारों में
बूढी आँखों ने
पहले भी देखे हैं खुनी मंज़र गलियारों में
माँ का दिल सहमा सा धड़कता
हैं जब तक लौट ना बच्चे घर में
सर पर कफ़न बांध कर घूम
रहे है काफिर हर गांव में
हर गली हर मोड़ पर बैठे
हैं हुकूमत के बाशिंदे
कर कैद हरकत-ए-आम निगाहों
में
अभी तो पुरानी चोट से
भी नही उबरा मेरा बेबस शहर
के फ़िर से मायूसी बिखरी
है हर तरफ़
इधर हुजूम की जान पर
बन आइ हैं
कि उधर चंद लोगो को आरक्षण
चाहिए!