Thursday, July 2, 2020

पहाड़ वाला घर!



एक पहाड़ से पनाह ली मैंने, क्योंकि घर बनाने का ख्वाब
बचपन से पीछा ही नहीं छोड़ता मेरा !
बड़े इत्मीनान से पहाड़ ने बात सुनी भी !
बस फिर क्या था ? मैंने भी लिए आसमान से दो मोटे मोटे बादल उधार!
खींच दी लकड़ी की दीवार, तन गए खूबसूरत दरवाजे!
बिछ गई खूबसूरत चादरें , टांग दिए गुलाबी परदे
बस कुछ ऐसे ही हो रहा था घर मेरा तैयार
चुग्गा डाला,पंछी मेहमान बन आंगन उतर आये!
मिट्टी के जादू से पौधे झूम झूम इठलाये
घने दरख़्त है आस पास घर के गोद में महफूज़ ऱखते है मुझे !
अभी चाय की केतली चढाई ही थी जंगली गुलाब खिड़की से
रसोई में झांक-झांक कर मुस्कुराने लगे!
क़िताबों की धीमी ख़ुशबू उबलती चाय से मिलने आई ही थी
कि अलार्म बजने लगा मेरा
नींद टूट गई ! और आज फिर से रह गया ख्वाब मेरा अधूरा!
फिर शाम को छत पर मोटे बादल , शक्ल बना कर चिड़ा थे मुझे
पर ये लोग अभी जानते नहीं मुझे !
एक दिन इन्हे थैले में भर कर ले जाना है!
और पहाड़ वाले घर की खिड़की पर टांग देना है!
क्या हुआ जो मैं सबर में हूं! रास्ता ज़रा लम्बा है और अभी मैं सफर में हूं!
पर एक दिन ख़ूबसूरत से पहाड़ पर बहुत खूबसूरत सा घर होगा मेरा!

                     
                 

Sunday, June 21, 2020

रास्ता!

कोई इंसान एक दिन में  खुदखुशी नहीं करता नहीं झूलता फांसी के फंदे पर , नहीं कूदता ट्रेन के आगे न नींद की बे हिसाब गोलिया खाता है! बहुत लोग,बहुत से किस्से और हादसे जिम्मेदार होते है बहुत बार! बड़ी कशमकश लगती है ज़िंदगी को वापिस जीतने में या फिर हार जाने में मसलन धीरे धीरे मारने लगती है आँखों की चमक कभी कभी चुप्पी का शोर होता है या फिर अनगिनत ठहाके पर मरने लगती है बात करने वाले की आवाज़ की खनक! मुमकिन है बहुत बोलने वाला एकदम शांत हो जाए या फिर शांत रहने वाला बरबस बोलता रहे ! इस लड़ाई में सिर्फ सच बोलती है आँखे! हो सकता है बातचीत में नज़र चुराने लगे! मुमकिन है के नशे की दुनिया में आराम मिलने लगे दिमाग को! या फिर हो सकता है सुकून की तलाश में निकल पड़े राहगीर किसी पहाड़ पर या फिर अकेलापन रास आने लगे कभी कभी तो कभी-कभी लगने लगे शोर बेहतर! आसान नहीं है लड़ना , धीरे धीरे मर रही होती है बेबाक़ हंसी
हज़ार नियामते
होती है मगर जीतने लगती है एक कमी!
धीरे धीरे मर रहे होते है सपने
फिर ज़रूरी नहीं लगता कोई जाने या समझे!
शरीर का ख़त्म होना हादसा है! सुर्खिया बन जाता है! पर कमज़ोर पड़ती ज़िंदगी हर रोज़ किश्तों में ख़त्म होने से बचने के लिए चुपचाप तलाश करती कोई रास्ता है !

Thursday, April 16, 2020

सुबह की धुप!




मैं सोच रही हूं सुबह की धुप के मानिंद, चुपके से उतर जाऊ कमरे की खिड़की से..
चुपचाप निहार लूं,तुम्हे सोते हुए…तुम्हारी वो प्यारी सी नाक और आते जाते खर्राटे! 
बेतरतीब बिखरे बाल , कच्ची नींद को पक्का करती आँखे…
तुम्हारी मासूमियत को देख कर अक्सर शरारते आती है ज़ेहन में
जैसे पंखे की स्पीड कम कर दूं, या फिर फ़ोन पर मिस्ड कॉल कर डिस्टर्ब कर दूं...
खैरे ये ख्याल ही खूबसूरत है, मैं तो हमेशा से हूँ ही शराफत का नुमाइंदा!
तुम सुकून से ज़रा ख्वाब बुन लो…
मैं धुप हूं ,चलती हूं ...उम्मीद है जब नींद से जागो तो रोशन मिले तुम्हे घर हमारा! 

चांद का चक्कर !

ये जो तारे ठिठुऱते रहे ठण्ड में रात भर !   ये    सब चांद का चक्कर है !   ये जो आवारा बदल तलाशते रहे घर !   ये   सब...