अगर तस्सली से बैठ कर हिसाब किताब लगाया जाए
अमूमन जिंदगी खूबसूरत है!
पर जब कभी सरपट दौड़ती ज़िंदगी से हट कर खुद से मिलता हूं,
तो मन अक्सर पहाड़ के दूसरी तरफ वाले गाँव ले जाता है.
जंहा होती है सुनहरी ऊन वाली भेड़
जंहा की औरतें बड़ी सी नथ पहनती है
जंहा पर रात नीले आसमां में ढेर सारे तारे बुरक देती है
जंहा की शाम बादलो से तिलिस्म सा करते ढलती है
फिर अचानक वापिस लौटने को मजबूर कर देता है ईमेल नोटिफिकेशन,
या फिर फ़ोन का रिंगटोन
और फिर मैं गुम हो जाता हूं अपनी मेट्रोसिटी की ज़िंदगी में
सुबह-शाम-रात वाली ,लंच टाइम, वीकेंड वाली ज़िंदगी में
पर कभी कभी रात को सोने से पहले आँखे बंद कर
बिना टिकट, बिना किराया, मैं फ़िर से पहुंच जाता हूं
पहाड़ के दूसरी तरफ वाले गाँव में
जंहा के मंदिर में शिव लिंग होगा
जरा ईश्वर से अकेले में मिलना है मुझे
जंहा की औरते लोक गीत गाती है, लफ्ज़
भले एक समझ न आए
पर धुन सुनना है मुझे
जंहा जंगली फूल गुत्थम गुथा होते
हैं
बस एक नज़र ठहर कर देखना है मुझे
जंहा की खिड़की से दिखते हैं खुबसुरत
नीले पहाड़
एक सुबह उस घर में जागना है मुझे
जंहा के पुल से गुजरती बस हूबहू
दिखती है नीचे बहती नदी में
पानी में पैर डाल वंहा बैठना है
मुझे
जंहा बादलो की बस्ती बसी है दूर
तक
मैदान में घास पर लेटकर एक बादलो
का घर बनाना है मुझे
जंहा एक चीड़ के घने दरख्तों का जंगल
है
सुना है जंगली झाड़ियों की ख़ुश्बू बड़ी गर्म जोशी से गले मिलती है
बस इतनी सी ख्वाहिश है, एक बार ज़रा
सी देर के लिए वंहा ठहरना है मुझे!