Sunday, December 10, 2017

सर्दिया

चटक सुनहरा रंग पहन कर मटक मटक कर आती है धुप
अलसुबह खिड़की से उतर कर
मोज़े आलसी बहुत हो चले है कि सुस्ताने से फुर्सत
नहीं मिलती आजकल
स्वेटर, दस्ताने मौका ढूंढते है कि कभी आकर पहन ले मुझे
बर्फ भी नहीं पड़ी इस बार, कि हवाए हड़ताल पर है!
बस दिसंबर का कैलेंडर अपनी रफ्तार पर है!
लगता है दूर कहीं इत्मीनान से रजाई ओढ़ कर सो रही है सर्दिया!

चांद का चक्कर !

ये जो तारे ठिठुऱते रहे ठण्ड में रात भर !   ये    सब चांद का चक्कर है !   ये जो आवारा बदल तलाशते रहे घर !   ये   सब...