Monday, October 27, 2014

दर्द

वो दर्द रिसता हैं रफ्ता रफ्ता,और मैं तकलीफ से परेशान हो जाता हूं मैं
बहती है गहरी चुप्पी,भयानक मायूसी
और बेचैन दर्द से छटपटाता  हूं मैं
वो बहुत गहरा हैं,अंदर तक समाया हुआ
जिसे कोई देख भी नहीं सकता,जो महसूस कर पाता हूं मैं
चलती है कश्मकश हारने-जीतने की,अजीब सा खेल हैं
जीत कर भी हार जाता हूँ मैं.
कैसे कहूँ,लफ्ज़ नहीं मेरे पास,वो सवाल पर सवाल दागते है
और पलके झुकाए चला जाता हूँ मैं
अजीब से बांध गया धड़कते दिल वाले पत्थर के बुत से..जितना पास आता हूँ

उतना खुद को नुकसान पहुँचता हूँ मैं..

चांद का चक्कर !

ये जो तारे ठिठुऱते रहे ठण्ड में रात भर !   ये    सब चांद का चक्कर है !   ये जो आवारा बदल तलाशते रहे घर !   ये   सब...