इस
मेट्रो सिटी में बाई तरफ के शॉपिंग मॉल
में ग्राउंड फ्लोर पर क़िताबों की
दुकान है!
अक्सर
आते जाते रूकती हूँ मैं वंहा, किताबें कांच के मोटी दीवारों से बाहर झांकती है
कभी कभी वो
मेरे खुले बालो की सिफ़ते करती है तो कभी दुप्पटे के रंग को लेकर ताने
मारती है !
उस बुक शॉप
में दाखिल होते ही एक जानी पहचानी खुशबू आकर गले मिलती है !
कि दिमाग
पर चढी डिजिटल ज़िंदगी के परते उतरने लगती है!
जब बाहर ढलती शाम के साथ सड़कों पर लाल-पीली बतियो का सैलाब
उमड़ पड़ता है !
तब उस बुक
शॉप में ठीक बाई तरफ एक अलमारी है स्याह रंग
की,
जहां से
नज्मो का ख़ज़ाना निकलता है!
जब थके मांदे लोग घर को लौटते है तब अक्सर
मैं और गुलज़ार साहब,
वहां
रखे स्टुल पर बैठ इत्मीनान से क़िताबों के ज़रिये गुफ्तगू करते है!