मैं लांघ कर आता हूं बीहड़ घने विचारो के
मैं रोज़ लड़ता हूँ कभी अंदर कभी बाहर
मैं गौर से सुनता हूं कभी शोर कभी चुप्पी
मैं चीखता हूं कभी कागज़ पर शब्दों से
कभी भीड़ में ख़ामोशी से....
मैं उलझ जाता हूं अक्सर,
फिर बैठ कर खुद को सुलझाता हूं
मैं खुद को तोड़ता हूं,
फिर से खुद को बनाता हूं...
मैं कभी कभी बहुत बोलता हूं,
जैसे कह दूं,मन की बाते सारी
तो कभी एकदम खामोश हो जाता हूं
बस खूबसूरती से मुस्कुराता हूँ....
पर जब शाम ढले थक हार कर घर आता हूँ
सारे शब्द खामोश हो जाते हैं..
जब खुद से मिलता हूं
मैं अक़्सर तुम्हे ढूंढ़ता हूं...
रात के गहरे अंधेरे में निकल पड़ता हूं
कभी आहट को ध्यान से सुनता हूं
कभी सोता हूं तो कभी जगता हूं
कभी कभी खुद के भीतर तो कभी बाहर
मैं अक़्सर तुम्हे ढूंढ़ता हूं...