कभी कभी मैं
सोचता हूँ
यकीन कर लूँ
तुम्हारी सारी बातों
पर,तुम्हारे झूठे मुठे
कसमों वादों पर..
कभी कभी मैं
सोचता हूँ
देखना शुरू कर
दूँ तुम्हारी आँखों
से दुनिया,बोलना सुनना सीख
जाऊं तुम्हारी बातों
से...
कभी कभी मैं
सोचता हूँ
सोचना शुरू कर
दूँ तुम्हारी दी हुई
हिदायतो से,तुम्हारी दी हुई
समझदारी से
शायद तुम्हारी तरह सोचते-समझते किसी
दिन मैं भी हिस्सा हो
जाउंगा तुम्हारा
तो तुम अपना
सा मान कर अपना लोगे
तुम
मुझे..
पर दिक्कत यह
है कि कुछ मेरा है
मुझ में
जो मेरे जैसा
रहता है
मेरी तरह सोचता
है..
मुझे सुनता है…जो तुमसे अलग
है ज़रा सा
फिर मैं यही
सोच कर रह जाता हूं..
शायद किसी दिन
तुम खुद के अलावा किसी
और को भी अपना लोगे
खुद के बोलने
के बाद किसी
और की चुप्पी
को सुनना सीख
जाओगे..
या फिर मेरे
जाने के बाद शायद आये
ख्याल तुम्हारे मन
में
क्यों मैं बिना
कुछ कहे चला जाता हूं..
क्यों मैं छत
में अकेले बैठ
कर तारे गिनता
हूँ
क्यों मैं तुम्हारे
आँखों में देख कर बात
करता हूं..
क्यों मैं तुम्हारी
बातों पर मुस्कुराता
हूँ!