Sunday, October 29, 2017

बाग़ी औरते




सुना है आजकल बढ़ती तादाद में शामिल है बाग़ी औरते

जो दिन भर चक्की की तरह पिसती है

रात को तकलीफ से सिसकती है

पर मुँह से उफ़ तक नहीं करती है बाग़ी औरते

सदियों पुरानी बेड़ियों को तोड़ना चाह रही है

खुद का वज़ूद तलाश करती

अपने रास्तो की तलाश में निकल पड़ी है बाग़ी औरते

मलूक से मेहनतकश में तब्दील हो रही है

आवाम के लिए मसला संजीदा बनकर उभर रही है

टूटी,बिखरती, फिर से संभलती बाग़ी औरते!

Saturday, October 14, 2017

दिवाली




आजकल बाजारों की रौनक गवाह है कि दिवाली आस पास है
सुना है सारे छोटे छोटे दिए मिल कर सामना करेंगे अंधेरे का

तुम भी तैयारी करने में मशगूल होगी ना माँ
पर इस बार जब तुम आओ,
तो रोशनी की चहल पहल से हटकर ज़रा खामोश घरो की तरफ भी जाना

यह औरत
जो सड़क पर बैठ कर मिट्टी के दिए बेचती है
मिट्टी के सांचे को आकार देती है तुम्हारा,
फिर दुनिया पूजन की रात मनोकामना पूर्ती के लिए पूजती है
इस बार इस मेहनत कश देवी को पहचान देती जाना

और वो ठेलेवाले बाबा
उम्र पक गईपर मेहनत करने की आदत नहीं गई
या फिर चंद मजबूरिया है घर पर बाट देख रही
दिवाली की तैयारी के लिए सोये नहीं कुछ रातो से
दो जोड़ी बूढ़ी आँखें राह तकती है तुम्हारी
इस बार ज़रा मिलती जाना

उधर कुछ लोग,
आए है दूर गांव से चंद पैसे कमाने
इन पर क़र्ज़ है अपनी गुणवती लक्ष्मी को ससुराल विदा करने का
तुम तो जगत माँ हो, खुद एक औरत हो
जानती हो यह समाज नियम कायदो का
इस बार पुकार सुनती जाना


महंगाई बहुत है,
हो सकता है बहुत घरों में दिए ना जले
हो सकता है बहुत लोग सो जाए ख़ाली पेट
हो सकता है बहुत मजबूरिया फीकी रंगोली मांडे
पर माँ इस दिवाली की प्रार्थना है कि इस बार सब की प्रार्थना सुनती जाना
सब के मन को रोशन करती जाना




चांद का चक्कर !

ये जो तारे ठिठुऱते रहे ठण्ड में रात भर !   ये    सब चांद का चक्कर है !   ये जो आवारा बदल तलाशते रहे घर !   ये   सब...