सुना है आजकल बढ़ती तादाद में शामिल है बाग़ी औरते
जो दिन भर चक्की की तरह पिसती है
रात को तकलीफ से सिसकती है
पर मुँह से उफ़ तक नहीं करती है बाग़ी औरते
सदियों पुरानी बेड़ियों को तोड़ना चाह रही है
खुद का वज़ूद तलाश करती
अपने रास्तो की तलाश में निकल पड़ी है बाग़ी औरते
मलूक से मेहनतकश में तब्दील हो रही है
आवाम के लिए मसला संजीदा बनकर उभर रही है
टूटी,बिखरती, फिर से संभलती बाग़ी औरते!
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