Sunday, March 19, 2017

आरक्षण







बदलते मौसम के मिजाज को देख सन्नाटा पसरा है बाजार में
रोनक ख़ामोशी से सिमट कर जा बैठी है बंद दीवारों में
बूढी आँखों ने पहले भी देखे हैं खुनी मंज़र गलियारों में
माँ का दिल सहमा सा धड़कता हैं जब तक लौट ना बच्चे घर  में
सर पर कफ़न बांध कर घूम रहे है काफिर हर गांव में
हर गली हर मोड़ पर बैठे हैं हुकूमत के बाशिंदे
कर कैद हरकत-ए-आम निगाहों में
अभी तो पुरानी चोट से भी नही उबरा मेरा बेबस शहर 
के फ़िर से मायूसी बिखरी है हर तरफ़
इधर हुजूम की जान पर बन आइ हैं
कि उधर चंद लोगो को आरक्षण चाहिए!







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