Friday, November 16, 2018

.जायके







तुम्हारे ज़ेहन में  भी  दस्तक  देते होंगे ना
जायके  घर के लज़ीज खाने के ...

मसलन वो गाजर के अचार के डिब्बे को खोलते ही
सीधा दिमाग में उतर जाती माँ के हाथो से पिसी राई की खुश्बू…

 सर्दियों की आलसी सुबह में चकले पर चुस्ती से चलते हाथ,
तवे पर सिकते वो अचारी आलू प्याज़ के परांठे
औऱ वो किसी ग्लेशियर सा पिघलता मक्खन...

एक वो मीठी मीठी सी महक कढ़ाई में सिकते आटे की
जो कुछ देर बाद नपे-तुले घी शक़्कर मिला देने पर 
हलवे की शक्ल में तब्दील हो जाता था …

 वो गरम गरम आलू मटर की सब्ज़ी
अदरक-धनिया की महकती खुशबू 
कुकर की सिटी से रसोई की खिड़की से होकर 
फरार अक्सर पूरे घर में मुझे थी ढूंढती…

 आज ऑफिस में मैगी खाते वक्त खूब याद आये
घर के खाने के .जायके
कुछ खट्टे-मीठे ,कुछ करारे-तीखे...
माँ के हाथ के खाने के .जायके...


Saturday, October 13, 2018

एक राह

   








      एक राह है जो मुझसे होकर जाती है
      फिर तुमसे मिलती है!

      बहुत बार भटक जाता हूं
      कुछ नहीं समझ आता है
      फिर कहीं से एक छोटी सी                          
      रोशनी चमकती है!

      एक राह है जो मुझसे होकर जाती है
      फिर तुमसे मिलती है!

       माना मुश्किलें बहुत है 
       रास्ते भी है टेड़े मेढे 
       ज़रा ज़रा सी हिम्मत जुटा कर                     
       फिर से चल देता हूं!

      एक राह है जो मुझसे होकर जाती है
      फिर तुमसे मिलती है!

      मुसाफिर है दिल बंजारा मेरा 
      अब तो मज़िल है खुदा  मेरा
       राह मेरी बंदगी है!

      एक राह है जो मुझसे होकर जाती है
      फिर तुमसे मिलती है!



           

             
              

Wednesday, July 18, 2018

मेरा रब




                                               
     हो सकता है वो लकीरें हाथ में नही मेरे
    उसीने दे ये अमीरी, उसी की ये फ़क़ीरी.
    कब मैं उसकी नज़र में उसके लायक बनुगा
    वही सब जानता है..
    मेरा रब है,जो सब जानता है!


   मेरे सारे सपने, मेरी सारी तकलीफे
   मेरे सजदे,मेरे सारे गुनाह
   मेरी सब शिकायतें,                                      
   देकर दलीले जब मैं चुप हो जाता हूं
   तब वो मेरे अल्फ़ाज़ लफ्ज़ दर लफ्ज़ जानता  है!
   मेरा रब है,जो सब जानता है!

    मुझे नहीं समझ,मैं हार गया 
    या फिर जीत गया...जंग ज़िंदगी की
    बस अपनी नेकिया-गुस्ताखियाँ कर दी             
    उसी के हवाले
    सुना है सबके हिसाब-किताब वो बेहतर जानता है!
     मेरा रब है,जो सब जानता है!
                                                  







Sunday, June 10, 2018

ख्वाहिश



अगर तस्सली से बैठ कर हिसाब किताब लगाया जाए
अमूमन जिंदगी खूबसूरत है!

पर जब कभी सरपट दौड़ती ज़िंदगी से हट कर खुद से मिलता हूं,
तो मन अक्सर पहाड़ के दूसरी तरफ वाले गाँव ले जाता है.

जंहा होती है सुनहरी ऊन वाली भेड़
जंहा की औरतें बड़ी सी नथ पहनती है
जंहा पर रात नीले आसमां में ढेर सारे तारे बुरक देती है
जंहा की शाम बादलो से तिलिस्म सा करते ढलती है

फिर अचानक वापिस लौटने को मजबूर कर देता है ईमेल नोटिफिकेशन
या फिर फ़ोन का रिंगटोन
और फिर मैं गुम हो जाता हूं अपनी मेट्रोसिटी की ज़िंदगी में
सुबह-शाम-रात वाली ,लंच टाइम, वीकेंड वाली ज़िंदगी में

पर कभी कभी रात को सोने से पहले आँखे बंद कर
बिना टिकट, बिना किराया, मैं फ़िर से पहुंच जाता हूं
पहाड़ के दूसरी तरफ वाले गाँव में

जंहा के मंदिर में शिव लिंग होगा
जरा ईश्वर से अकेले में मिलना है मुझे
जंहा की औरते लोक गीत गाती है, लफ्ज़ भले एक समझ न आए
पर धुन सुनना है मुझे
जंहा जंगली फूल गुत्थम गुथा होते हैं
बस एक नज़र ठहर कर देखना है मुझे

जंहा की खिड़की से दिखते हैं खुबसुरत नीले पहाड़
एक सुबह उस घर में जागना है मुझे
जंहा के पुल से गुजरती बस हूबहू दिखती है नीचे बहती नदी में
पानी में पैर डाल वंहा बैठना है मुझे
जंहा बादलो की बस्ती बसी है दूर तक
मैदान में घास पर लेटकर एक बादलो का घर बनाना है मुझे

जंहा एक चीड़ के घने दरख्तों का जंगल है
सुना है जंगली झाड़ियों की ख़ुश्बू  बड़ी गर्म जोशी से गले मिलती है
बस इतनी सी ख्वाहिश है, एक बार ज़रा सी देर के लिए वंहा ठहरना है मुझे!



Sunday, February 11, 2018

मैं और गुलज़ार साहब!



इस मेट्रो सिटी में बाई तरफ के शॉपिंग मॉल में ग्राउंड फ्लोर पर क़िताबों की दुकान है!
अक्सर आते जाते रूकती हूँ मैं वंहा, किताबें कांच के मोटी दीवारों से बाहर झांकती है
कभी कभी वो मेरे खुले बालो की सिफ़ते करती है तो कभी दुप्पटे के रंग को लेकर ताने मारती है !
उस बुक शॉप में दाखिल होते ही एक जानी पहचानी खुशबू आकर गले मिलती है !
कि दिमाग पर चढी डिजिटल ज़िंदगी के परते उतरने लगती है!
जब बाहर ढलती शाम के साथ सड़कों पर लाल-पीली बतियो का सैलाब उमड़ पड़ता है !
तब उस बुक शॉप में  ठीक बाई तरफ एक अलमारी है स्याह रंग की,
जहां से नज्मो का ख़ज़ाना निकलता है!
जब थके मांदे लोग घर को लौटते है तब अक्सर मैं और गुलज़ार साहब,
वहां रखे स्टुल पर बैठ  इत्मीनान से क़िताबों के ज़रिये गुफ्तगू करते है!


Tuesday, January 2, 2018

मैं अक़्सर तुम्हे ढूंढ़ता हूं...

            




                           मैं लांघ कर आता हूं बीहड़ घने विचारो के 
                         मैं रोज़ लड़ता हूँ कभी अंदर कभी बाहर 
                         मैं गौर से सुनता हूं कभी शोर कभी चुप्पी 
                         मैं चीखता हूं कभी कागज़ पर शब्दों से 
                         कभी भीड़ में ख़ामोशी से....



                        मैं उलझ जाता हूं अक्सर
                        फिर बैठ कर खुद को सुलझाता हूं
                        मैं खुद को तोड़ता हूं,
                        फिर से खुद को बनाता हूं...

            
                        मैं कभी कभी बहुत बोलता हूं,
                        जैसे कह दूं,मन की बाते सारी
                        तो कभी एकदम खामोश हो जाता हूं
                        बस खूबसूरती से मुस्कुराता हूँ....

         
                        पर जब शाम ढले थक हार कर घर आता हूँ
                        सारे शब्द खामोश हो जाते हैं..
                        जब  खुद से मिलता हूं
                        मैं अक़्सर तुम्हे ढूंढ़ता हूं...


                       रात के गहरे अंधेरे में निकल पड़ता हूं
                       कभी आहट को ध्यान से सुनता हूं
                       कभी सोता हूं तो कभी जगता हूं 
                       कभी कभी खुद के भीतर तो कभी बाहर 
                       मैं अक़्सर तुम्हे ढूंढ़ता हूं...




         


चांद का चक्कर !

ये जो तारे ठिठुऱते रहे ठण्ड में रात भर !   ये    सब चांद का चक्कर है !   ये जो आवारा बदल तलाशते रहे घर !   ये   सब...